A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Monday, December 5, 2011

Aahat peeda ka marham

एक कविता मेरे एक गुरुजी द्वारा लिखित (सादर समर्पित) :

आहत पीड़ा का मरहम बन सकी न कोई बात;
नींद कहीं  सो गई  और  हम जागे सारी रात.

पत्ते भी सो गए डाल पर, हवा कहीं जा सोई,
चलता रहा हृदय के गलियारे में जाने कोई;
अन्तहीन राहें, तम गहरा, नन्हा दीप अकेला,
किसे बताएँ क्या-क्या हमने कैसे-कैसे झेला?

नीड़ों  के क्रंदन में अन्धड़ ओलों की बरसात;
नींद कहीं सो गई  और  हम जागे सारी रात.

बंजर चेहरे पर उग आई हैं अनगिनत व्यथाएँ,
हुईं न पूरी, रहीं अधूरी, कुछ अनमोल कथाएँ;
चक्रवात बन गए हादसे, हमें कहाँ ले आये?
कौन किसे ऐसे मौसम में, मन की पीर सुनाये?

कहाँ सहेजें जग की कोरी बातों की सौगात? 
नींद  कहीं सो  गई और  हम जागे सारी रात.

                          -श्री घनश्याम दास वर्मा जी, बलरामपुर 

Monday, August 15, 2011

Save Ourselves

मित्रों, 
याद करों वह क्षण, जब प्रथम बार तुमने रंग दे बसंती फिल्म देखी थी. कैसा ज्वार फूट पडा था मन में कुछ कर गुजरने का! जैसे भगतसिंह की आत्मा हमारे ही मन में करवट लेने लगी थी. अपने समुदाय को नरक बना देने वाले दानवों को विध्वंस कर देने की सशक्त इच्छा उठी थी. कमी थी तो बस एक अवसर की. सत्य यह है कि ऐसे क्षणों की हम युवाओं के जीवन में कमी नहीं रही है. परन्तु फिर भी विडम्बना यह है कि हम इस ज्वार को सीने में दफ़न किये बूढ़े हो जायेंगे. हमारे नाती-पोते जब हमसे सामजिक दुरावस्था के लिए उत्तर मांगेंगे तो हम उनसे दृष्टि नहीं मिला पाएंगे; कुछ नहीं कह पायेंगे सिवा अपने मन में दुहराने के: 'कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!!'

इतिहास साक्षी है कि हर काल में दो प्रकार के व्यक्ति रहे हैं:
प्रथम वे जिनके लिए उनका प्रतिदिन का व्यवसाय, परिवार, व्यक्तिगत विषय सर्वोपरि रहे हैं. आस-पास कुछ भी हो, वे निर्लिप्त रहेंगे. क्यों? उत्तरों की कमी नहीं मिलेगी उनके पास. जैसे: यह सब निरर्थक, निष्परिणाम हो-हल्ला है; मेरे पास समय नहीं है..या और बहुत सारे. 

दूसरी श्रेणी के व्यक्ति समय की पुकार के प्रति संवेदनशील होकर, इतिहास के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझकर अपना कर्त्तव्य निर्धारित करते हैं; बिना इस बात की परवाह किये कि कोई उनके समर्थन में है या नहीं, सारे समीकरण उनके पक्ष में हैं या नहीं, उनका पड़ोसी उन्हें देखकर हँसेगा तो नहीं और कि कहीं वह अपनी नौकरी से निकाल तो नहीं दिए जायेंगे. उन्हें चिन्ता मात्र इस बात की होती है कि भविष्य में क्या मैं स्वयं को देखकर संतुष्ट हो पाऊँगा कि मैंने समय आने पर वह किया, जो मुझे करना चाहिए था?

मित्रों, निर्णय लेने का समय-खंड बहुत विस्तृत नहीं होता है. थोड़ी सी भूल के कारण प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम विफल हो गया था जिसके कारण हमारी गुलामी की आयु ९० वर्ष बढ़ गयी थी. आज भी कहीं हम अपने आलस्य में एक अमूल्य अवसर को गवां न दें. हमारे भारत में जहां चोर-उचक्के देश के लोगों को दिन-रात लूटने में लगे हैं; जहाँ एक सामान्य व्यक्ति निस्सहाय है; जहाँ आज सरकार को कर देने से ट्रैफिक हवलदार को पैसे देना अधिक उचित जान पड़ता है; यदि हमने समय की पुकार सुनकर एक सुयोग्य नेता का साथ नहीं दिया, तो:

इतिहास न तुमको माफ़ करेगा, याद रहे,
पीढ़ियाँ तुम्हारी करनी पर पछ्तायेंगी.
अंगडाई लेने में खो गए सवेरा यदि,
सदियों में न फिर ऎसी घड़ियाँ आयेंगी.
(शिव मंगल सिंह 'सुमन')

Monday, August 8, 2011

Main baaghi hoon, by Dr. Khalid Javed Jan

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन  तख्तों  से  इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


वो जिन के होंठ की  ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे  बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.

-Dr. Khalid Javed Jan (Pakistani poet)

Saturday, July 16, 2011

Apni Bebasi Par

The following picture of the boy Vipin Soni in Mumbai crying over the death of his brother forced me to express my anguish in the following lines:

है चुनौती, कोई इसके अश्रु  पोछे ;
अब न भौंके कूटनीतिक वाक्य ओछे.

जल रही दुनिया, जला संसार इसका,
डूबे सपने, उजड़ा है परिवार इसका
मिट चुका इंसान से विश्वास इसका.

देखे इसकी आँख से यह देश कोई;
ढूँढ़े बढ़ते भारत का अवशेष कोई;
फिर दे हमको सहन का निर्देश कोई.

फटा सीना नहीं जो अब भी तुम्हारा,
समझ जाओ, हृदय गोबर हो चुका है;
अपनी आँखें आँसू पी कर थक चुकी हैं,
पानी कब का सर से ऊपर हो चुका है.

नायकों इस देश के, कुछ शर्म पालो;
हृदय में कुछ हया, कुछ तो दर्द डालो;
चुल्लू भर पानी में खुद को मार डालो.

Saturday, July 9, 2011

Gard-e-Sozistaan

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तेरे संग होने का अहसास गर नहीं होता;
ग़म-ए-दुनिया से दिल यूँ बेखबर नहीं होता.
कितने रिश्तों की झलक एक तुझमें मिलती है,
कोई यूँ साथ हर मुक़ाम पर नहीं होता.

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मासूम है तू शब-ए-शबनमी की तरह; 
प्यारी किसी खोयी हुई ख़ुशी की तरह.
कभी फुर्सत दे तो ये शिक़वा
भी करूँ:
बेदर्द तू भी है जिंदगी की तरह!

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साज़-ए-नफ़स का तराना तुम हो;
मेरे जीने का बहाना तुम हो.
फिर क्यों ये कभी कभी लगता है,
कि मैं हूँ मैं और ज़माना तुम हो.


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ये गीत तुम्हारी याद में फिज़ाएं गायेंगी.
जब तुम नहीं होगे, तो हमको रुलायेंगी.
हम तो भुला नहीं सकेंगे उम्र भर तुम्हें,
क्या तुमको भी भूले से मेरी याद आएगी?


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रिश्ता तुम्हारा ज़रा गहरा है शराफत से;
नज़रें सो मुझसे
मिलाते हो कुछ किफायत से.
इंसान-ए-सादादिल हूँ, ऐयार नहीं हमदम;
नफरत हो जाये क्यों न, दुनिया की शराफत से.


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राह-ए-उल्फ़त पे चलना है तो हुनर सीखो.
वस्ल से पहले तुम हिज़्र का सफ़र सीखो.
संग जो निकलेगा माशूक के हाथों से कल;
शर्त ये है उसे भी प्यार की नज़र देखो.


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थक गया, बेक़ल हवाओं, सोने दो अब; 
चाँद की जलती शुआओं, सोने दो अब.

कल की खातिर आस के कतरे पलक में
बचा लो बोझिल निगाहों, सोने दो अब.
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Saraab

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शिक़वे रखना हो तो रखना भले ज़माने से;

चूकना मत मेरे ज़ज़्बात आजमाने से.


नींद अपनी भी बेवफाई सी कर जाती है;

खींच ले जाती है तुम तक किसी बहाने से.


हमने तो तुमको एक किताब--सदाक़त समझा;

फिर भी क्यूँ तुम्हे हम लगते रहे फ़साने से?


तुम तो अंजुम हो इस सवाद--जिंदगानी में;

गुरेज़ करो खुद को सराब कहे जाने से.


दर्द उठता है तो बस नाम तेरा लेता हूँ;

दिल चटख उठता है फिर तेरी याद आने से.
 
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Saturday, July 2, 2011

Ab bhi khamosh raaton mein aksar

अब भी खामोश रातों में अक्सर
चुपके से बादलों के पीछे से,
एक-दो ख्वाब आ जाते हैं कभी.
दर्द की बिजली चमक उठती है.
रात छितरा के बिखर जाती है.

अब भी खामोश रातों में अक्सर
ढूँढने लगता हूँ कुछ दूर कहीं  
यादों के बादलों में बिखरा सा.
दरिया आँखों से छलक जाता है,
और फिर नींद रूठ जाती है.

अब भी खामोश रातों में अक्सर
ज़िन्दगी को कुरेद करके कहीं,
पूछने लगता हूँ जब अपना पता,
एक बेग़ाने दश्त में खुद को
अपनी तलाश में पाता हूँ.
  
अब भी खामोश रातों में अक्सर
वक़्त मुसलसल भागता नज़र आता है
काले बियाबान रास्ते में एक रेल नुमा;
चाँद सिसकता है स्टेशन के लैम्पों की तरह
औ ज़िन्दगी कहीं पीछे छूटी जाती है.

अब भी खामोश रातों में अक्सर
तेरे नगमों की याद आती है.
गुज़रे बातों की याद आती है.
जिंदगी के बेसुरे सवालों में,
उलझकर साँसे थक सी जाती हैं.

और यूँ रात गुज़र जाती है.
अब भी खामोश रातों में अक्सर.....

Friday, June 24, 2011

The Trinity That Governs My Life

Three poems that always have been moulding my life:

  •  Think Truly:
Think truly, and thy thoughts;
                         Shall the world’s famine feed.
Speak truly, and each word of thine;
                                   Shall be a fruitful seed.
Live truly, and your life;
                     Shall be a great and noble creed.
                                            : Horatius Bonar   

  • Let My Country Awake

Where the mind is without fear and the head is held high;

Where knowledge is free;

Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;

Where the words come out from the depth of truth;

Where tireless striving stretches its arms towards perfection;

Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;

Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action -

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
                                                  :Ravindra Nath Tagore

  • If
IF you can keep your head when all about you
Are losing theirs and blaming it on you,
If you can trust yourself when all men doubt you,
But make allowance for their doubting too;
If you can wait and not be tired by waiting,
Or being lied about, don't deal in lies,
Or being hated, don't give way to hating,
And yet don't look too good, nor talk too wise:

If you can dream - and not make dreams your master;
If you can think - and not make thoughts your aim;
If you can meet with Triumph and Disaster
And treat those two impostors just the same;
If you can bear to hear the truth you've spoken
Twisted by knaves to make a trap for fools,
Or watch the things you gave your life to, broken,
And stoop and build 'em up with worn-out tools:

If you can make one heap of all your winnings
And risk it on one turn of pitch-and-toss,
And lose, and start again at your beginnings
And never breathe a word about your loss;
If you can force your heart and nerve and sinew
To serve your turn long after they are gone,
And so hold on when there is nothing in you
Except the Will which says to them: 'Hold on!'

If you can talk with crowds and keep your virtue,
Or walk with Kings - nor lose the common touch,
if neither foes nor loving friends can hurt you,
If all men count with you, but none too much;
If you can fill the unforgiving minute
With sixty seconds' worth of distance run,
Yours is the Earth and everything that's in it,
And - which is more - you'll be a Man, my son!
                                    :Rudyard Kipling

Friday, May 20, 2011

इसकी खुशबू तो अब तुम्हारी है;
बनिस्बत है उन हवाओं से जो हमारे दरमियान से होकर गुज़र जाती थीं.
आज ये भी उन्ही के मानिंद दिल को जलाती है.
इसके धुएँ में छुप जाती है ज़िन्दगी और तब तुम और सिर्फ तुम नज़र आती हो.
ये अलग बात है कि कभी तुम और ज़िंदगी दोनों हमशक्ल थे.
और इसकी आग:
आज भी जेठ की दुपहरी में सुकून देने के लिए बहुत ही माकूल है.
मानता हूँ, यह प्यार नहीं है:
वो तो तुमने जलाया था....
और वो आग मेरे सीने तक पहुची थी.
सुलग रही है, सदियों पुराने अंगारे की तरह.
तुमने तो महसूस की सिर्फ इसकी बदबू,
जो तुम्हारे तलक पहुचती थी कभी मेरे तो कभी औरों के मुँह से.
हाँ, ये प्यार नहीं है!
ये तो एक कमज़ोर शसियत की निशानी है.
मगर इंसानी ख़ुलूस का वक़ार कायम रखने के लिए,
ज़िंदगी में कभी-कभी बेबुनियाद, बेज़मीन ज़ज़्बात को परवाज़ देना पड़ता है.
और वहाँ झूठे आईनों से बचने के लिए धुंधलकों की ज़रुरत पड़ती है.
ऐसे भी, मोहब्बत और सिगरेट दोनों आखिर कुचल ही दिए जाते हैं:
एक पिलाने वाले से; तो दूसरा खुद पीने वाले से.

Monday, April 25, 2011

Dastoor

दुनिया से रूठकर के तेरा ऐतबार किया, खुदी अपनी तेरी चाहत पे मैं निसार किया;
तूने इस मोड़ पे मेरी जो रुसवाई की, न खुद की चाह है अब, और न ख़ुदाई की.

तेरी मुस्कान के बल पर तेरी आँखों की कसम, ज़िंदगी भर के आंसू मैं झेल सकता था;
ठेस न पहुचे कहीं तेरे पाक ज़ज्बों को, इसलिए अपने अरमानों से खेल सकता था.

तू साथ थी तो नाज़ करती थी ज़िंदगी मुझपे; खुद को चाहत का मसीहा मैं समझा करता था.
काँटों से भी मैं मुहब्बत से पेश आता था; हर एक शै में तेरा अक्स मिला करता था.

शर्म तुझपे करूँ अब, या करूँ मुहब्बत पर; या बदलूँ अपना दुनिया को देखने का शऊर?
और ये मान लूँ, सब नज़रों का बस धोक़ा है; ग़ुल-ओ-ख़ार के जुदा होते नहीं हैं दस्तूर?


Wednesday, April 20, 2011

Ek zaraa si baat

ख़ुदा होता कोई तो उससे कुछ ग़िला करते;
वरना गलियों में भटकने के सिवा क्या करते.

तुम थे नज़रों में, सो हम चलते गए, जीते गए;
वरना यूँ ज़ीस्त की हम जी-हुजूरी क्या करते.

ज़हाँ के दर्द का तुमको है मुक़म्मल अहसास;
हम से दीवानों की, तुम कोई फिक़र क्या करते.

यक-ब-यक कभी जो लड़ जाती हैं उनसे नज़रें;
थामकर साँस वक़्त थमने की दुआ करते.

साक़ी, तू ज़ाम बेकद्रों को दिया करता है;
हम तो प्यासे हैं, वुज़ू करके जो पिया करते.    

देखा होता जो एक बार ख़ुलूसे-नज़र से;
इश्क़-ओ-दीवानगी की हम तो इंतहा करते.

रंज़ बस इतना है कि, उनको यह गुमाँ भी नहीं;
जिनसे हम अपनी हस्ती का तर्जुमाँ करते 

Kavita

प्रात-संध्या आँख में आँसू-सदृश तुम आओगे.
ओ सजल कविता मेरी, कब तक मुझे तड़पाओगे?

नियति ने छीने सभी सुर, गीत निर्मम हो गए;
काल के कोलाहल में, शब्द मेरे खो गए.
क्या करूँ थाती ये अनुपम, सहेजूँ किसके लिए;
भाव जो तुमने दिए थे, शब्द जो मैंने कहे.

मिट गयी संवेदना भी, मिट गयी अभिरंजना भी;
हृदय प्रस्तर हो गया, आँखों को क्या पथराओगे?

कैसा था मधुमास वह, हम पास भी थे, दूर भी; 
प्राण से भी तुम निकट थे, फिर भी थे ज्यों अजनबी.
प्रीति की पावन डगर का मैं था इक राही हठी;
और मेरी साधना तुमको सदा भटकन दिखी.

थक गया वह प्रीति-राही, खो गयी वह प्रेम-डगरी; 
चाहों, तुम भी साथ छोडो, कहाँ तक ले जाओगे? 

काव्य था, या स्वप्न था या सत्य था;
जो था सुन्दर और शिव, वह लक्ष्य था.
क्यों सिमटकर स्वयं में यूँ रह गया हूँ;
क्षितिज के उस पार जब गन्तव्य था.

श्रावणी की मधुर रिमझिम, क्लांत मन की चाह थे तुम;
डबडबाई आँख में कब तक छुपे रह पाओगे?

Sunday, April 17, 2011

Aankhen

कोई साज़िश है ये नादान दिल की, या वक़्त ने फिर शरारत का इरादा किया?
या कहीं ये सच तो नहीं..
जैसा कि कभी कभी लगता है, उनकी शफ्फाक आँखों में नज़र आने वाले बेशुमार फ़सानात, जिनका मौजू अक्सर मैं खुद को पाता हूँ: वो सचमुच मुझीसे मुताल्लिक हैं.
आह..
कशमकश ये जायज़ है!
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

मगर देखा ये है:
कि जब भी मासूम निगाहों ने कोई बात की है;
एक बेनाम अक्स नुमाया हुआ सूरते-सराब;
जिसको समझा किये तस्वीर हम सदाकत की;
और इंसानियत से बढ़के उसकी पूजा की.
एक लम्हे की चोट लगते ही वो सारे वुजूद, 
खुश्क पत्तों की तरह ग़ुम हुए फ़ज़ाओं में;
छोड़कर हमको वीरान दरख़्त की मानिंद..
(सज़ा हो जैसे ये खुद को न समझ पाने की).

आज कितने दिनों से होश में हम रहते हैं!

(ये जुदा बात है; वो खामोश निगाहें ऐसे
मुझको हर मोड़ पर मिल जाती हैं जैसे;
अब भी वो मुन्तज़िर हों मेरे ज़वाबों की.)

जानता हूँ कि ये सवाल-ओ-ज़वाब मेरे ही हैं.
(सबको फुर्सत कहाँ, कि दिल की जुबां सुनने चले!)
फिर क्यों उन आँखों ने एक नीले समंदर की तरह,
एक झोंके में डुबोकर मुझे बेनियाज़ कर दिया दुनिया के हर मसाइल से.
क्यों मुझे फिर से यकीन हो रहा है कि,
उन आँखों से हो रहा है ख़ुलूस किसी दिल का बयाँ....
जिसको उम्मीद है मुझसे मेरे सदाकत की
दरिया-ए-आग में ख्वाहिश मेरी रफ़ाक़त की.

कैसे कह दूँ कि आँखें बेवफ़ा होती हैं?
कैसे कह दूं कि ये अहसास सब बेमाने हैं?
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

ek naam

दुनिया में तमन्ना-खेज़ यूँ चेहरे तमाम हैं;
हो जाएँ फ़ना जिसपे, वो बस एक नाम है.

दीवानों को है कब भला मंज़िल की आरज़ू;
हासिल है इक नशा जो साथ सुबह-ओ-शाम है.

मिटकर भी हमें ज़िंदगी का एहतराम है;
अगयार में भी गाते प्यार का कलाम हैं.

एक हादसा ही कहूँगा मैं हाल को अपने;
वरना एक मासूम पे आता इलज़ाम है. 

हर मोड़ पे हम तनहा हुए औ हुए रुसवा;
बशारत-ओ-सदाक़त का यही तो ईनाम है.

Gardish

सोती है जब आधी दुनिया, तब दो आँखें रोती  हैं;
कूए-दिल की तन्हाई में खुद से बातें होती हैं. 

ख़्वाबों की रंगीं पोशाक में, आ गयीं जब मैं बेसुध था,
सोचा था कि हमको जगाकर, अब वो चैन से सोती हैं.

यूँ चाँद की खामोशी थी गज़ब, सुनकर ये मेरा हाल-ए-उल्फत,
उनकी नज़रों में जैसे मुझे खामोशी अक्सर मिलती  है.

कितनी रस्में, कितने पहरे, सच के कितने झूठे चेहरे;
मासूम से दिल की इस महफ़िल में, क्या क्या हालत होती है.

तारों की गर्दिश ने क्या क्या खेल किये हैं, मत पूछो;
आँखों में कल ताजमहल था, अब अश्कों के मोती हैं.

'अब्र' तुम्हारा दिल ही जला, इंसान यहाँ तो जलते हैं;
यह दुनिया है इंसानों की, यहाँ ऎसी ही बातें होतीं हैं.

Thursday, February 24, 2011

Barsaat



मेरी नज़रों ने तुमको देखा, ये बात पता कल रात हुई;

पलकों के अम्बर के नीचे जब बिन मौसम बरसात हुई.



सोच रहा हूँ सपना है; पर अपना क्या, जानूं कैसे?

दिल को ही कहते हो झूठा; फिर तुम सच्चे, मानूँ कैसे?

पहले भी बहारें आती थीं, सावन भी महका करता था;

फागुन की शोख़ हवाओं में, यह मन भी बहका करता था.


कितने ही ज़लवों से अब तक मेरी आँखें दो-चार हुईं.



इन नाज़ुक होंठों सी सुर्ख़ी, क्या अब तक देखी नहीं कहीं?

या वाणी की झंकार से अब कोकिल की कीमत नहीं रही?

क्या सच है, पता नहीं मुझको; पर दिल ने अब यह मान लिया.

जीवन है अमा बिना तेरे, मरना तेरे संग ठान लिया.



तेरी चाहत का रंग पाकर मेरी दुनिया गुलज़ार हुई.



सूरज की प्रथम किरण जैसे तुम मेरे मन में समा गई.

मौसम का तेवर बदल गया, रंगीन फिज़ां गुदगुदा  गई.

सीख गया आँखों की भाषा; समझ गया, धड़कन के स्वर को.

जाना वह कौन सी शै है, जो इंसान बनाती पत्थर को.


सैलाब बहुत देखे थे, पर अब शबनम से पहचान हुई.



अब बदल के मेरी दुनिया को, तुम अगर अचानक बदल गए;

सच्चे दिल की पहचान हो तुम, मेरा दिल तोड़ के निकल लिए.

खोना पाना तो जीवन है, पर जीवन ही जब खो जाये;

यादों के सहारे दुनिया में फिर कैसे गुज़ारा हो पाए!


सूनी आँखों में पानी है, ये मुझको तेरी सौगात हुई.

Wednesday, February 23, 2011

Paarijat

कल्पवृक्ष का फूल
पूछता सत्य की भाषा,
मांगे जीवन की आशा;
जाने क्या अभिलाषा.

खुद से कितना दूर!
आह.. ये कैसी भूल.
ये कैसा उन्माद!
किस का ये उत्पात!
न हवा का कोई झोंका,
न तड़ित का वार.
ओस की इक बूँद से,
 खो गया, 
इक कली का हास,
चाँदनी का मुक्त विलास.
गया सब कुछ हार.
रह गया मधुमास
शेष. 

मेरे जीवन की पतवार,
खो गयी,
जाने कहाँ;
 मेरे सपनों की मधुरिमा,
मेरे जीवन की उषा,
खो गयी,
 जाने कहाँ..
मुझको जगाकर सो गयी.
और मैं....

रह गया इक पात.
अब कैसा पारिजात?
खो गए जब प्राण;
मिला नया सा ज्ञान.
कैसा फूल?
वो तो थी इक भूल !
यह नया लोक!
न सुख न शोक!
फूल था नादान,
अब हुआ इंसान.
तोड़कर जो फूल को 
घर को सजाता है.
बेंधकर उनके हृदय,
मुस्कुराते देखकर;
खुशियाँ मनाता है.

हँसी आती है अब
उनपर, क्योंकि
अब नहीं मैं फूल,
है मुझे यह ज्ञात!

Pyas

देखो मुझे, बातें न करो आस पास की;
छा जाओ तुम, लगती है ये बरखा उदास सी.

यादों में तुम्हारी मुझे मिलता है आसमान;
सपनों में दे जाती हो तुम किरणें प्रकाश की;

कितनी कठिन डगर है ये पूछो न मुझसे तुम;
योगी मिसाल देते हैं हमारी प्यास की.

कुछ ऐसा लगा आके इस अनजान नगर में;
हर डगर को है खोज तुम्हारे निवास की.

कितना भी पढ़ूँ, हमेशा मिलता है नयापन;
चेहरा है या कविता वो कोई कालिदास की.

Monday, February 14, 2011

Swapnadevi

मिटा कर अहसास मेरे, कर न लेना तुम किनारा.
वनवास में जीवन के तेरी आस ही मुझको सहारा.

कंटकों का डर, जिसे वो मैं नहीं;
टूटकर जाये बिखर, वो मैं नहीं;
फूल या पत्थर मिले, कुछ भी सही.

होके पत्थर, ज़माने की डगर को मैंने संवारा.

सोचता हूँ, क्या तुम मेरे प्राण हो;
या मेरे अस्तित्व का अभिमान हो;
जो भी हो, अब तुम मेरी पहचान हो.

तुम मेरे संबल सबल, उलटी मेरे जगती की धारा.

जगत है यह स्वप्न और तुम स्वप्नदेवी;
सत्य का मैं भक्त हूँ, पर स्वप्नसेवी.
स्वप्न हैं शाश्वत और मैं अल्पजीवी.

चन्द्र तुम रातों के मेरे, और मैं टूटता तारा..


Celebrating the love festival

I don't know exactly who Mr Valentine was..or what the historical significance is associated with the valentine day. Nevertheless, the mere dedication of a single day in the year to the eternal and innocent phenomenon of love, and that too in such a beautiful part of the year, makes it enough for me to take this time seriously.
For me, love is the most natural attribute of a human, lying in the core of heart..something that keeps one honest (love is inherently opposed to hypocrisy), and true (in a child like manner). It is a shade that when appears, renders all the colours of life brighter..it provides the contrast in your life. Just the opposite happens as the withdrawal symptom of love.
At the occasion of this sentimental time, I cheer up all the youth who have love in their life and appeal them to keep the lively spirit up. Simultaneously, I want to pass this year's Valentine day with the fellows for whom the life's equations have not been such favourable and this day is no longer a symbol of enormous positive energy. There are the hearts where all the excitement and sheer joy due to the proximity of the beloved is converted into an insurmountable darkness and dejection due to a distance between hearts..just like the after-effect of a heavy liquor party; and the feeling that there is someone very loving to you translates into a void close to your heart that blurs your senses and the whole world starts appearing strangers.
 I'm going to celebrate this Valentine day by gathering my poems written in the past and post them on the platform of Spandan. It's not feasible to upload all of them once, therefore, I'll do it gradually within a short period of time.

जो दर्द रुंधे थे साँसों में, वो आज ज़ुबां पर आयेंगे; 
जो अश्क़ दफ़न थे आँखों में; वो आज उफक़ पर छाएँगे.
अल्फाज़ यहाँ बेमानी हैं; यहाँ अश्क़ का मतलब पानी है;
ज़ज़्बात की इस मण्डी में मेरे, अहसास भी बिकने आयेंगे.

Thursday, January 6, 2011

Science Trust- 4th Anniversary



                                                                              (Image courtesy: The Nirmukta Freethought Community)