A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Tuesday, March 27, 2012

Khamkhwah..

एक बेशर्म हँसी की तरह गुज़र रही ज़िन्दगी में कभी तुम आई थी;
तुम्हारी आँखों से कितनी सारी मधुशालायें सज गईं थीं,
'ख़ामख़्वाह'!
एक बवंडर की तरह चली गयी;
मगर, उस एक पल ने
सूखी ज़िंदगी को आँसुओं से सींचकर हर जगह तुम्हारा चेहरा बो दिया.
हे अजनबी,
तुम्हारे सपनों से बिंधे हुए इस दिल की तरफ
जब भी रोटी और ज़मीर के फरोख़्त-पेशा लोगों से फुर्सत मिलती है;
कभी-कभी महकी हवाएँ रुख कर लेती हैं.
सच कहूँ, अभी भी नहीं फर्क कर पाता हूँ
सपने और हक़ीक़त में.
मगर, चेहरे पढ़ने से ज़रूर डरने लगा हूँ अब.
दरवाज़ा खोलता हूँ तो ज़माने भर की गर्द चेहरे पे छा जाती है!
हैरत तो यह है, कि आँख के आँसू तक साथ छोड़ गए!
बेशर्म कहीं के!