A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Monday, August 15, 2011

Save Ourselves

मित्रों, 
याद करों वह क्षण, जब प्रथम बार तुमने रंग दे बसंती फिल्म देखी थी. कैसा ज्वार फूट पडा था मन में कुछ कर गुजरने का! जैसे भगतसिंह की आत्मा हमारे ही मन में करवट लेने लगी थी. अपने समुदाय को नरक बना देने वाले दानवों को विध्वंस कर देने की सशक्त इच्छा उठी थी. कमी थी तो बस एक अवसर की. सत्य यह है कि ऐसे क्षणों की हम युवाओं के जीवन में कमी नहीं रही है. परन्तु फिर भी विडम्बना यह है कि हम इस ज्वार को सीने में दफ़न किये बूढ़े हो जायेंगे. हमारे नाती-पोते जब हमसे सामजिक दुरावस्था के लिए उत्तर मांगेंगे तो हम उनसे दृष्टि नहीं मिला पाएंगे; कुछ नहीं कह पायेंगे सिवा अपने मन में दुहराने के: 'कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!!'

इतिहास साक्षी है कि हर काल में दो प्रकार के व्यक्ति रहे हैं:
प्रथम वे जिनके लिए उनका प्रतिदिन का व्यवसाय, परिवार, व्यक्तिगत विषय सर्वोपरि रहे हैं. आस-पास कुछ भी हो, वे निर्लिप्त रहेंगे. क्यों? उत्तरों की कमी नहीं मिलेगी उनके पास. जैसे: यह सब निरर्थक, निष्परिणाम हो-हल्ला है; मेरे पास समय नहीं है..या और बहुत सारे. 

दूसरी श्रेणी के व्यक्ति समय की पुकार के प्रति संवेदनशील होकर, इतिहास के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझकर अपना कर्त्तव्य निर्धारित करते हैं; बिना इस बात की परवाह किये कि कोई उनके समर्थन में है या नहीं, सारे समीकरण उनके पक्ष में हैं या नहीं, उनका पड़ोसी उन्हें देखकर हँसेगा तो नहीं और कि कहीं वह अपनी नौकरी से निकाल तो नहीं दिए जायेंगे. उन्हें चिन्ता मात्र इस बात की होती है कि भविष्य में क्या मैं स्वयं को देखकर संतुष्ट हो पाऊँगा कि मैंने समय आने पर वह किया, जो मुझे करना चाहिए था?

मित्रों, निर्णय लेने का समय-खंड बहुत विस्तृत नहीं होता है. थोड़ी सी भूल के कारण प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम विफल हो गया था जिसके कारण हमारी गुलामी की आयु ९० वर्ष बढ़ गयी थी. आज भी कहीं हम अपने आलस्य में एक अमूल्य अवसर को गवां न दें. हमारे भारत में जहां चोर-उचक्के देश के लोगों को दिन-रात लूटने में लगे हैं; जहाँ एक सामान्य व्यक्ति निस्सहाय है; जहाँ आज सरकार को कर देने से ट्रैफिक हवलदार को पैसे देना अधिक उचित जान पड़ता है; यदि हमने समय की पुकार सुनकर एक सुयोग्य नेता का साथ नहीं दिया, तो:

इतिहास न तुमको माफ़ करेगा, याद रहे,
पीढ़ियाँ तुम्हारी करनी पर पछ्तायेंगी.
अंगडाई लेने में खो गए सवेरा यदि,
सदियों में न फिर ऎसी घड़ियाँ आयेंगी.
(शिव मंगल सिंह 'सुमन')

Monday, August 8, 2011

Main baaghi hoon, by Dr. Khalid Javed Jan

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन  तख्तों  से  इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


वो जिन के होंठ की  ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे  बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.

-Dr. Khalid Javed Jan (Pakistani poet)