A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Friday, February 14, 2014

वैलेन्टाइन, वसन्त व विसंगतियाँ

वैलेन्टाइन डे का १४ फरवरी को पड़ना एक विलक्षण संयोग है। यह समय भारत में ऋतुओं के राजा वसन्त के आधिपत्य का होता है। वसन्त को भारत जैसे बहुऋतु प्रदेश में ऋतुराज की उपाधि अकारण नहीं दी गई है; इसने आदिकाल से मानव संवेदना व मानस को उद्वेलित किया है। कालिदास से लेकर निराला व अज्ञेय तक भारतीय साहित्य कभी वसन्त के प्रभाव से अछूता न रह पाया। भला कौन वह संवेदनशील व्यक्ति होगा जिसे फागुन की उच्छृंखल व मादक हवाएँ उमंग व आसक्ति से न आप्लावित कर देती होंगी? 
कालिदास कहते हैं कि लाल कोंपलों के गुच्छों से झुके हुये और सुन्दर मञ्जरियों से लदी शाखाओं वाले आम के वृक्ष जब पवन के झोके में हिलने लगते हैं, तो उन्हें देख-देखकर अंगनाओं के मन उत्सुकता से भर उठते हैं –
      ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतद्रुमाः पुष्पितचारुशाखाः ।
      कुर्वन्ति कामं पवनावधूताः पर्युत्सुकं मानसमङ्गनानाम् ॥ ऋतुसंहारम् ६.१७

वसन्त आता है तो सुखित जन्तु भी न जाने किसके लिए पर्युत्सुक (बेचैन) हो उठता है। जहाँ भी कुछ सुन्दर दिखा, मन बहक जाता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वसन्त को 'मादक उत्सवों का काल' कहा है। प्राचीन भारत में ऐसे काल में वसन्तोत्सव व मदनोत्सव मनाए जाते थे। वसन्त को कामदेव का सखा माना जाता है। वसन्त 'काम' की ऋतु है, प्राचीन भारत में वसन्तोत्सव काम-पूजा का उत्सव था। आज न तो वसन्त को लेकर वह आह्लाद दिखाई देता है, न ही मदनोत्सव या काम-पूजा।
जिस भारतीय संस्कृति में दिनों-दिन नए-नए देवी-देवताओं का आविष्कार होता रहता है, कामदेव को लगभग विस्मृत कर देना एक विचारणीय बिन्दु है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में 'काम' को मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों में एक रखा गया था। फिर आज यह अवहेलना क्यों?
पर यह परिघटना अप्रत्याशित नहीं है। अजन्ता और खजुराहो हमारी भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। रतिशास्त्र की जगत्-प्रतिष्ठित पुस्तक ऋषि वात्स्यायन की काम-सूत्र भारत की देन है। और स्वतन्त्र-निर्णीत गान्धर्व विवाह शास्त्र-सम्मत ६ वैवाहिक विधियों में से एक था। पर भारतीय संस्कृति के आधुनिक ठेकेदार लौलिक-सुखोन्मुखी, उन्मुक्त व स्वच्छन्द जीवन-दृष्टि को उसी प्रकार 'पाश्चात्य शैली' का तमगा पहनाने में लगे हैं, जिस प्रकार उन्होंने हिन्दू धर्म की मुख्य धारा से सांख्य/चार्वाक आदि अनीश्वरवादी दर्शनों को हटाकर, भारत की सनातन अन्वेषणपरक परम्परा को झुठलाते हुए, हिन्दू धर्म-संस्कृति को राम-कृष्ण, गौ-पूजा और परम्पराओं के अन्धानुकरण तक सीमित कर दिया है। बहुलवादी, प्रगतिशील व सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का ध्येय रखने वाली संस्कृति जड़ होकर व्यक्ति के शारीरिक व बौद्धिक सुख तथा स्वतन्त्रता का विरोध करने लगी है।
यह इन्हीं सांस्कृतिक उग्रवादियों का षड्यंत्र है जिसके अन्तर्गत कभी सौंदर्य व आनन्द को जीवन के परमार्थ मानने वाली तथा रति व काम को दैविक मानने वाली संस्कृति में प्रेमाचरण के एक पर्व को अश्लील कहा जाता है। यह एक विडम्बना है कि रास-लीला व मदनोत्सव वाले देश में प्रेमी-प्रेमियों को परस्पर प्रेम प्रकट करने के लिए एक विदेशी परंपरा का सहारा लेना पड़ रहा है, और वह भी समाज के पोंगापंथियों की आँखों में बुरी तरह खटक रहा है। संस्कृति की सड़ान्ध ने हमारे स्वतंत्रता-परक, आनन्द-केन्द्रित उत्सवों को खा लिया है; पर उनकी जगह करवा-चौथ जैसी दमन-पोषक परम्पराएँ फलती-फूलती रही हैं। स्वतन्त्र प्रेम आपत्तिजनक है, पर दाम्पत्य-धर्म के नाम पर शोषण गौरवपूर्ण है!
कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिस संस्कृति का गौरवगान हम उसकी प्रगतिशीलता व मानव-जीवन के उत्कर्ष पर केंद्रित होने के लिए करते हैं, संरक्षण के भ्रम में उसी संस्कृति के मूल्यों से विमुख होते जा रहे हैं। वैलेन्टाइन ने बलिदान भले ही पश्चिम के लोगों को जागृत करने के लिए दिया हो, वे भारतीय समाज की आँखें खोलने के भी एक निमित्त हो सकते हैं। वैलेन्टाइन डे वसन्त की हवाओं में उन्मुक्तता से झूमने व प्रेम-रस में आकण्ठ सराबोर होने का सन्देश लेकर आता है; किसी भी जड़ता या पूर्वाग्रह का परिचय न तो भारतीय संस्कृति के हित में है, न ही मानव-जीवन के।