A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Thursday, August 2, 2012

Chal Akela

एक गीत सुना करता था, बचपन में:
"कोई चलता पग-चिन्हों पर कोई पग-चिन्ह बनाता है;
है वही शूरमा इस जग में, दुनिया में पूजा जाता है।"

  अचानक 
जैसे इस गीत को एक नया अर्थ मिल गया।
 
 अवसर था 'सत्यमेव जयते' धारावाहिक की अन्तिम कड़ी के प्रसारण का। अपनी संक्षिप्त आयु में सामाजिक सरोकारों को कुरेदने का जो सशक्त प्रयत्न इस कार्यक्रम ने किया, वह अत्यंत सराहनीय है! इसके प्रस्तुतकर्ता इसलिए साधुवाद के पात्र हैं कि न केवल उन्होने समाज की गन्दगी को जीवन्त रूप में हमको दिखाया है, बल्कि हमें सकारात्मक पहल करने को प्रेरित करने में भी वे सफल रहे हैं। एक निष्क्रिय समुदाय के अन्तिम बहाने 'असहायता' को धारावाहिक के अन्तिम भाग में प्रमुखता से लक्ष्य बनाया गया और समकालीन उदाहरणों को प्रस्तुत करके "आज के समय में कुछ नहीं कर सकते"   कहने वालों के मुँह पर ताला लगा दिया गया है।

 बहरहाल, यहाँ मैं इस कार्यक्रम के जिस विशेष भाग की मुख्य रूप से बात करने जा रहा हूँ; वह है दशरथ माँझी से सम्बंधित। बिहार के गहलौर गाँव के इस सामान्य से व्यक्ति की असाधारण व्यक्तिगत प्रतिबद्धता और धैर्य ने 22 वर्षों के लम्बे कालखण्ड और मानवीय असहायता की प्रतीक पहाड़ी को झुका दिया।
...एक मनुष्य का 22 वर्षों तक लगातार किसी पहाड़ी को खोदते रहना और आखिरकार 360 फीट लम्बा, 25 फीट ऊँचा और 16 फीट चौड़ा रास्ता बनाकर ही दम लेना अदम्य प्रतिबद्धता और धैर्य की अविश्वसनीय गाथा नहीं तो और क्या है?
दशरथ माँझी: एक निरक्षर गँवार व्यक्ति, हम सब के लिए निस्संदेह प्रेरणास्रोत है; परन्तु क्या इस प्राणी को भी किसी प्रेरणास्रोत की आवश्यकता पड़ी होगी? हममें से अधिकांश लोगों को प्रेरणा देने के लिए इतिहास एवं साहित्य में सैकड़ों-हजारों सन्दर्भ-सूक्तियाँ उपस्थित रहती हैं, परन्तु कितने लोग दशरथ माँझी जैसे प्रतिमान खड़ा कर पाते हैं?
   क्यों नहीं? ....चिन्तन का विषय है!


एक विचारणीय बिन्दु जो उभरकर आता है, वह है हमारी 'दुनियावी सोच'!

" भला ऐसा भी कहीं होता है?"

" कभी ऐसा किसी ने किया है?"

 तात्पर्य यह कि हम precedents की खोज में रहते हैं। अपनी क्षमता का आकलन हमें दूसरों के उदाहरण से होता है। सबसे बड़ी बात, हमको 'क्या होना चाहिए' से अधिक 'क्या होता है' की परवाह रहती है।
 

  दशरथ को नहीं पता था कि वह कितना सफल होगा; उसे तो (हिन्दी फिल्म देव के नायक-चरित्र के शब्दों में) बस यह पता था कि उसने वह किया जो उसे करना चाहिए था। और यही उसका सम्बल था। 'क्या होना चाहिए' की मानसिकता ने उसको दृढ़निश्चय प्रदान किया। उसे किसी precedent की आवश्यकता नहीं पड़ी, न किसी साथी और न ही किसी वाह्य-प्रोत्साहन की।..ऐसे लोग प्रोत्साहनों से बनाए नहीं जाते, स्वनिर्मित होते हैं। ऐसे लोगों को प्रेरणा व पग-चिन्हों की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि ये एकाकी-यायावर ही पग-चिन्ह बनाते हैं। निस्सन्देह यह अपने रास्ते पर अकेले होंगे; परन्तु इसकी परवाह किसे है?
  

  चल अकेला चल अकेला...
   

  मैगेलन साथी की प्रतीक्षा करता या 'दुनिया का चलन' देखता तो घर में बैठा रहा होता। सत्येन्द्र दुबे या मंजुनाथ को क्या नहीं पता था कि वे अकेले हैं? परन्तु उन्हें 'है' से अधिक 'होनी चाहिए' का विचार था। उन्होने केवल यह सोचा कि उन्हें क्या करना चाहिए, न कि और लोग क्या कर रहे हैं।
  "सत्यमेव जयते"-माण्डूक्य उपनिषद् की इस सूक्ति से मैं असहमत रहा हूँ। मेरा विचार रहा है कि
 "सत्यमेव जयतु"  (सत्य की जय होनी चाहिए) अधिक सटीक है "सत्यमेव जयते"   (सत्य की जय होती है) की तुलना में। इसका कारण यह है कि जहाँ "सत्यमेव जयतु"   हमें सत्य के प्रति दायित्वबोध कराता है, "सत्यमेव जयते"   एक प्रकार से निष्क्रियता को प्रोत्साहित करता है।
  परन्तु ऐसे पात्रों को देखकर लगता है कि "सत्यमेव जयते"   कुछ सीमा तक एक वैध निष्कर्ष है और इसका अस्तित्व ऐसे ही स्वप्रेरित लोगों पर आधारित है। ऐसे लोग जिन्हें किसी वाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती है और न ही जिन्हें सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियाँ हतोत्साहित कर सकती हैं। ऐसे व्यक्तियों की चेतना समीकरणों का दास नहीं होती है। सो, सत्य की सफलता का उद्योग भी प्राकृतिक नियन्त्रण में स्वत: चलता ही रहता है।

Tuesday, March 27, 2012

Khamkhwah..

एक बेशर्म हँसी की तरह गुज़र रही ज़िन्दगी में कभी तुम आई थी;
तुम्हारी आँखों से कितनी सारी मधुशालायें सज गईं थीं,
'ख़ामख़्वाह'!
एक बवंडर की तरह चली गयी;
मगर, उस एक पल ने
सूखी ज़िंदगी को आँसुओं से सींचकर हर जगह तुम्हारा चेहरा बो दिया.
हे अजनबी,
तुम्हारे सपनों से बिंधे हुए इस दिल की तरफ
जब भी रोटी और ज़मीर के फरोख़्त-पेशा लोगों से फुर्सत मिलती है;
कभी-कभी महकी हवाएँ रुख कर लेती हैं.
सच कहूँ, अभी भी नहीं फर्क कर पाता हूँ
सपने और हक़ीक़त में.
मगर, चेहरे पढ़ने से ज़रूर डरने लगा हूँ अब.
दरवाज़ा खोलता हूँ तो ज़माने भर की गर्द चेहरे पे छा जाती है!
हैरत तो यह है, कि आँख के आँसू तक साथ छोड़ गए!
बेशर्म कहीं के!