A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Monday, April 25, 2011

Dastoor

दुनिया से रूठकर के तेरा ऐतबार किया, खुदी अपनी तेरी चाहत पे मैं निसार किया;
तूने इस मोड़ पे मेरी जो रुसवाई की, न खुद की चाह है अब, और न ख़ुदाई की.

तेरी मुस्कान के बल पर तेरी आँखों की कसम, ज़िंदगी भर के आंसू मैं झेल सकता था;
ठेस न पहुचे कहीं तेरे पाक ज़ज्बों को, इसलिए अपने अरमानों से खेल सकता था.

तू साथ थी तो नाज़ करती थी ज़िंदगी मुझपे; खुद को चाहत का मसीहा मैं समझा करता था.
काँटों से भी मैं मुहब्बत से पेश आता था; हर एक शै में तेरा अक्स मिला करता था.

शर्म तुझपे करूँ अब, या करूँ मुहब्बत पर; या बदलूँ अपना दुनिया को देखने का शऊर?
और ये मान लूँ, सब नज़रों का बस धोक़ा है; ग़ुल-ओ-ख़ार के जुदा होते नहीं हैं दस्तूर?


Wednesday, April 20, 2011

Ek zaraa si baat

ख़ुदा होता कोई तो उससे कुछ ग़िला करते;
वरना गलियों में भटकने के सिवा क्या करते.

तुम थे नज़रों में, सो हम चलते गए, जीते गए;
वरना यूँ ज़ीस्त की हम जी-हुजूरी क्या करते.

ज़हाँ के दर्द का तुमको है मुक़म्मल अहसास;
हम से दीवानों की, तुम कोई फिक़र क्या करते.

यक-ब-यक कभी जो लड़ जाती हैं उनसे नज़रें;
थामकर साँस वक़्त थमने की दुआ करते.

साक़ी, तू ज़ाम बेकद्रों को दिया करता है;
हम तो प्यासे हैं, वुज़ू करके जो पिया करते.    

देखा होता जो एक बार ख़ुलूसे-नज़र से;
इश्क़-ओ-दीवानगी की हम तो इंतहा करते.

रंज़ बस इतना है कि, उनको यह गुमाँ भी नहीं;
जिनसे हम अपनी हस्ती का तर्जुमाँ करते 

Kavita

प्रात-संध्या आँख में आँसू-सदृश तुम आओगे.
ओ सजल कविता मेरी, कब तक मुझे तड़पाओगे?

नियति ने छीने सभी सुर, गीत निर्मम हो गए;
काल के कोलाहल में, शब्द मेरे खो गए.
क्या करूँ थाती ये अनुपम, सहेजूँ किसके लिए;
भाव जो तुमने दिए थे, शब्द जो मैंने कहे.

मिट गयी संवेदना भी, मिट गयी अभिरंजना भी;
हृदय प्रस्तर हो गया, आँखों को क्या पथराओगे?

कैसा था मधुमास वह, हम पास भी थे, दूर भी; 
प्राण से भी तुम निकट थे, फिर भी थे ज्यों अजनबी.
प्रीति की पावन डगर का मैं था इक राही हठी;
और मेरी साधना तुमको सदा भटकन दिखी.

थक गया वह प्रीति-राही, खो गयी वह प्रेम-डगरी; 
चाहों, तुम भी साथ छोडो, कहाँ तक ले जाओगे? 

काव्य था, या स्वप्न था या सत्य था;
जो था सुन्दर और शिव, वह लक्ष्य था.
क्यों सिमटकर स्वयं में यूँ रह गया हूँ;
क्षितिज के उस पार जब गन्तव्य था.

श्रावणी की मधुर रिमझिम, क्लांत मन की चाह थे तुम;
डबडबाई आँख में कब तक छुपे रह पाओगे?

Sunday, April 17, 2011

Aankhen

कोई साज़िश है ये नादान दिल की, या वक़्त ने फिर शरारत का इरादा किया?
या कहीं ये सच तो नहीं..
जैसा कि कभी कभी लगता है, उनकी शफ्फाक आँखों में नज़र आने वाले बेशुमार फ़सानात, जिनका मौजू अक्सर मैं खुद को पाता हूँ: वो सचमुच मुझीसे मुताल्लिक हैं.
आह..
कशमकश ये जायज़ है!
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

मगर देखा ये है:
कि जब भी मासूम निगाहों ने कोई बात की है;
एक बेनाम अक्स नुमाया हुआ सूरते-सराब;
जिसको समझा किये तस्वीर हम सदाकत की;
और इंसानियत से बढ़के उसकी पूजा की.
एक लम्हे की चोट लगते ही वो सारे वुजूद, 
खुश्क पत्तों की तरह ग़ुम हुए फ़ज़ाओं में;
छोड़कर हमको वीरान दरख़्त की मानिंद..
(सज़ा हो जैसे ये खुद को न समझ पाने की).

आज कितने दिनों से होश में हम रहते हैं!

(ये जुदा बात है; वो खामोश निगाहें ऐसे
मुझको हर मोड़ पर मिल जाती हैं जैसे;
अब भी वो मुन्तज़िर हों मेरे ज़वाबों की.)

जानता हूँ कि ये सवाल-ओ-ज़वाब मेरे ही हैं.
(सबको फुर्सत कहाँ, कि दिल की जुबां सुनने चले!)
फिर क्यों उन आँखों ने एक नीले समंदर की तरह,
एक झोंके में डुबोकर मुझे बेनियाज़ कर दिया दुनिया के हर मसाइल से.
क्यों मुझे फिर से यकीन हो रहा है कि,
उन आँखों से हो रहा है ख़ुलूस किसी दिल का बयाँ....
जिसको उम्मीद है मुझसे मेरे सदाकत की
दरिया-ए-आग में ख्वाहिश मेरी रफ़ाक़त की.

कैसे कह दूँ कि आँखें बेवफ़ा होती हैं?
कैसे कह दूं कि ये अहसास सब बेमाने हैं?
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

ek naam

दुनिया में तमन्ना-खेज़ यूँ चेहरे तमाम हैं;
हो जाएँ फ़ना जिसपे, वो बस एक नाम है.

दीवानों को है कब भला मंज़िल की आरज़ू;
हासिल है इक नशा जो साथ सुबह-ओ-शाम है.

मिटकर भी हमें ज़िंदगी का एहतराम है;
अगयार में भी गाते प्यार का कलाम हैं.

एक हादसा ही कहूँगा मैं हाल को अपने;
वरना एक मासूम पे आता इलज़ाम है. 

हर मोड़ पे हम तनहा हुए औ हुए रुसवा;
बशारत-ओ-सदाक़त का यही तो ईनाम है.

Gardish

सोती है जब आधी दुनिया, तब दो आँखें रोती  हैं;
कूए-दिल की तन्हाई में खुद से बातें होती हैं. 

ख़्वाबों की रंगीं पोशाक में, आ गयीं जब मैं बेसुध था,
सोचा था कि हमको जगाकर, अब वो चैन से सोती हैं.

यूँ चाँद की खामोशी थी गज़ब, सुनकर ये मेरा हाल-ए-उल्फत,
उनकी नज़रों में जैसे मुझे खामोशी अक्सर मिलती  है.

कितनी रस्में, कितने पहरे, सच के कितने झूठे चेहरे;
मासूम से दिल की इस महफ़िल में, क्या क्या हालत होती है.

तारों की गर्दिश ने क्या क्या खेल किये हैं, मत पूछो;
आँखों में कल ताजमहल था, अब अश्कों के मोती हैं.

'अब्र' तुम्हारा दिल ही जला, इंसान यहाँ तो जलते हैं;
यह दुनिया है इंसानों की, यहाँ ऎसी ही बातें होतीं हैं.