A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Wednesday, April 20, 2011

Ek zaraa si baat

ख़ुदा होता कोई तो उससे कुछ ग़िला करते;
वरना गलियों में भटकने के सिवा क्या करते.

तुम थे नज़रों में, सो हम चलते गए, जीते गए;
वरना यूँ ज़ीस्त की हम जी-हुजूरी क्या करते.

ज़हाँ के दर्द का तुमको है मुक़म्मल अहसास;
हम से दीवानों की, तुम कोई फिक़र क्या करते.

यक-ब-यक कभी जो लड़ जाती हैं उनसे नज़रें;
थामकर साँस वक़्त थमने की दुआ करते.

साक़ी, तू ज़ाम बेकद्रों को दिया करता है;
हम तो प्यासे हैं, वुज़ू करके जो पिया करते.    

देखा होता जो एक बार ख़ुलूसे-नज़र से;
इश्क़-ओ-दीवानगी की हम तो इंतहा करते.

रंज़ बस इतना है कि, उनको यह गुमाँ भी नहीं;
जिनसे हम अपनी हस्ती का तर्जुमाँ करते 

1 comment:

  1. saheb, yeh to bilkul meri style ka sher ho gaya

    यक-ब-यक कभी जो लड़ जाती हैं उनसे नज़रें;
    थामकर सांस वक़्त थमने की दुआ करते.

    bas itna kahungaa

    "har sher aapne kaha itna khub, ham
    na kehate mukkarrar toh kya kehate"

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