प्रात-संध्या आँख में आँसू-सदृश तुम आओगे.
ओ सजल कविता मेरी, कब तक मुझे तड़पाओगे?
नियति ने छीने सभी सुर, गीत निर्मम हो गए;
काल के कोलाहल में, शब्द मेरे खो गए.
क्या करूँ थाती ये अनुपम, सहेजूँ किसके लिए;
भाव जो तुमने दिए थे, शब्द जो मैंने कहे.
मिट गयी संवेदना भी, मिट गयी अभिरंजना भी;
हृदय प्रस्तर हो गया, आँखों को क्या पथराओगे?
कैसा था मधुमास वह, हम पास भी थे, दूर भी;
प्राण से भी तुम निकट थे, फिर भी थे ज्यों अजनबी.
प्रीति की पावन डगर का मैं था इक राही हठी;
और मेरी साधना तुमको सदा भटकन दिखी.
थक गया वह प्रीति-राही, खो गयी वह प्रेम-डगरी;
चाहों, तुम भी साथ छोडो, कहाँ तक ले जाओगे?
काव्य था, या स्वप्न था या सत्य था;
जो था सुन्दर और शिव, वह लक्ष्य था.
क्यों सिमटकर स्वयं में यूँ रह गया हूँ;
क्षितिज के उस पार जब गन्तव्य था.
श्रावणी की मधुर रिमझिम, क्लांत मन की चाह थे तुम;
डबडबाई आँख में कब तक छुपे रह पाओगे?
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