दुनिया से रूठकर के तेरा ऐतबार किया, खुदी अपनी तेरी चाहत पे मैं निसार किया;
तूने इस मोड़ पे मेरी जो रुसवाई की, न खुद की चाह है अब, और न ख़ुदाई की.
तेरी मुस्कान के बल पर तेरी आँखों की कसम, ज़िंदगी भर के आंसू मैं झेल सकता था;
ठेस न पहुचे कहीं तेरे पाक ज़ज्बों को, इसलिए अपने अरमानों से खेल सकता था.
तेरी मुस्कान के बल पर तेरी आँखों की कसम, ज़िंदगी भर के आंसू मैं झेल सकता था;
ठेस न पहुचे कहीं तेरे पाक ज़ज्बों को, इसलिए अपने अरमानों से खेल सकता था.
तू साथ थी तो नाज़ करती थी ज़िंदगी मुझपे; खुद को चाहत का मसीहा मैं समझा करता था.
काँटों से भी मैं मुहब्बत से पेश आता था; हर एक शै में तेरा अक्स मिला करता था.
शर्म तुझपे करूँ अब, या करूँ मुहब्बत पर; या बदलूँ अपना दुनिया को देखने का शऊर?
और ये मान लूँ, सब नज़रों का बस धोक़ा है; ग़ुल-ओ-ख़ार के जुदा होते नहीं हैं दस्तूर?
काँटों से भी मैं मुहब्बत से पेश आता था; हर एक शै में तेरा अक्स मिला करता था.
शर्म तुझपे करूँ अब, या करूँ मुहब्बत पर; या बदलूँ अपना दुनिया को देखने का शऊर?
और ये मान लूँ, सब नज़रों का बस धोक़ा है; ग़ुल-ओ-ख़ार के जुदा होते नहीं हैं दस्तूर?
kya hua bhai ek toote hue dil ki dastan likh rahe ho???
ReplyDeleteHaan sa'ab, dastan jo hogi, wahi likhenge na!
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