A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Friday, May 20, 2011

इसकी खुशबू तो अब तुम्हारी है;
बनिस्बत है उन हवाओं से जो हमारे दरमियान से होकर गुज़र जाती थीं.
आज ये भी उन्ही के मानिंद दिल को जलाती है.
इसके धुएँ में छुप जाती है ज़िन्दगी और तब तुम और सिर्फ तुम नज़र आती हो.
ये अलग बात है कि कभी तुम और ज़िंदगी दोनों हमशक्ल थे.
और इसकी आग:
आज भी जेठ की दुपहरी में सुकून देने के लिए बहुत ही माकूल है.
मानता हूँ, यह प्यार नहीं है:
वो तो तुमने जलाया था....
और वो आग मेरे सीने तक पहुची थी.
सुलग रही है, सदियों पुराने अंगारे की तरह.
तुमने तो महसूस की सिर्फ इसकी बदबू,
जो तुम्हारे तलक पहुचती थी कभी मेरे तो कभी औरों के मुँह से.
हाँ, ये प्यार नहीं है!
ये तो एक कमज़ोर शसियत की निशानी है.
मगर इंसानी ख़ुलूस का वक़ार कायम रखने के लिए,
ज़िंदगी में कभी-कभी बेबुनियाद, बेज़मीन ज़ज़्बात को परवाज़ देना पड़ता है.
और वहाँ झूठे आईनों से बचने के लिए धुंधलकों की ज़रुरत पड़ती है.
ऐसे भी, मोहब्बत और सिगरेट दोनों आखिर कुचल ही दिए जाते हैं:
एक पिलाने वाले से; तो दूसरा खुद पीने वाले से.