A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Sunday, April 17, 2011

Aankhen

कोई साज़िश है ये नादान दिल की, या वक़्त ने फिर शरारत का इरादा किया?
या कहीं ये सच तो नहीं..
जैसा कि कभी कभी लगता है, उनकी शफ्फाक आँखों में नज़र आने वाले बेशुमार फ़सानात, जिनका मौजू अक्सर मैं खुद को पाता हूँ: वो सचमुच मुझीसे मुताल्लिक हैं.
आह..
कशमकश ये जायज़ है!
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

मगर देखा ये है:
कि जब भी मासूम निगाहों ने कोई बात की है;
एक बेनाम अक्स नुमाया हुआ सूरते-सराब;
जिसको समझा किये तस्वीर हम सदाकत की;
और इंसानियत से बढ़के उसकी पूजा की.
एक लम्हे की चोट लगते ही वो सारे वुजूद, 
खुश्क पत्तों की तरह ग़ुम हुए फ़ज़ाओं में;
छोड़कर हमको वीरान दरख़्त की मानिंद..
(सज़ा हो जैसे ये खुद को न समझ पाने की).

आज कितने दिनों से होश में हम रहते हैं!

(ये जुदा बात है; वो खामोश निगाहें ऐसे
मुझको हर मोड़ पर मिल जाती हैं जैसे;
अब भी वो मुन्तज़िर हों मेरे ज़वाबों की.)

जानता हूँ कि ये सवाल-ओ-ज़वाब मेरे ही हैं.
(सबको फुर्सत कहाँ, कि दिल की जुबां सुनने चले!)
फिर क्यों उन आँखों ने एक नीले समंदर की तरह,
एक झोंके में डुबोकर मुझे बेनियाज़ कर दिया दुनिया के हर मसाइल से.
क्यों मुझे फिर से यकीन हो रहा है कि,
उन आँखों से हो रहा है ख़ुलूस किसी दिल का बयाँ....
जिसको उम्मीद है मुझसे मेरे सदाकत की
दरिया-ए-आग में ख्वाहिश मेरी रफ़ाक़त की.

कैसे कह दूँ कि आँखें बेवफ़ा होती हैं?
कैसे कह दूं कि ये अहसास सब बेमाने हैं?
सुना है; "आँखें दिल की जुबां होती हैं".

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