A Bal Krishnan Blog

उखड़े उखड़े से कुछ अल्फाज़ यहाँ फैले हैं; मैं कहूँ कि ज़िन्दगी है, तुम कहो झमेले हैं.

Monday, August 8, 2011

Main baaghi hoon, by Dr. Khalid Javed Jan

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन  तख्तों  से  इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


वो जिन के होंठ की  ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे  बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.


मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.

मैं बाग़ी  हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.

-Dr. Khalid Javed Jan (Pakistani poet)

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