मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन तख्तों से इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
वो जिन के होंठ की ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
-Dr. Khalid Javed Jan (Pakistani poet)
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
इस दौर के रस्म-रिवाजों से,
इन तख्तों से इन ताजों से;
जो ज़ुल्म की कोख से जानते हैं,
इंसानी खून से पलते हैं;
जो नफरत की बुनियादें हैं,
और खूनी खेत की खादें हैं;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
वो जिन के होंठ की ज़म्बिश से,
वो जिन की आँख की लर्जिश से;
कानून बदलते रहते हैं,
और मुजरिम पलते रहते हैं;
इन चोरों के सरदारों से,
इन्साफ के पहरेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
मज़हब के जो व्यापारी हैं,
वो सबसे बड़ी बीमारी हैं;
वो जिनके सिवा सब काफिर हैं,
जो दीन का हर्फ़-ए-आखिर हैं;
इन झूठे और मक्कारों से,
मज़हब के ठेकेदारों से;
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ,
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
मेरे हाथ में हक का झंडा है,
मेरे सर पे ज़ुल्म का फन्दा है;
मैं मरने से कब डरता हूँ,
मैं मौत की खातिर जिंदा हूँ;
मेरे खून का सूरज चमकेगा,
तो बच्चा बच्चा बोलेगा.
मैं बाग़ी हूँ मैं बाग़ी हूँ
जो चाहे मुझपे ज़ुल्म करो.
-Dr. Khalid Javed Jan (Pakistani poet)
very beautiful..
ReplyDeleteintense n full of expressions !!