मिटा कर अहसास मेरे, कर न लेना तुम किनारा.
वनवास में जीवन के तेरी आस ही मुझको सहारा.
कंटकों का डर, जिसे वो मैं नहीं;
टूटकर जाये बिखर, वो मैं नहीं;
फूल या पत्थर मिले, कुछ भी सही.
होके पत्थर, ज़माने की डगर को मैंने संवारा.
सोचता हूँ, क्या तुम मेरे प्राण हो;
या मेरे अस्तित्व का अभिमान हो;
जो भी हो, अब तुम मेरी पहचान हो.
तुम मेरे संबल सबल, उलटी मेरे जगती की धारा.
जगत है यह स्वप्न और तुम स्वप्नदेवी;
सत्य का मैं भक्त हूँ, पर स्वप्नसेवी.
स्वप्न हैं शाश्वत और मैं अल्पजीवी.
चन्द्र तुम रातों के मेरे, और मैं टूटता तारा..
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