कल्पवृक्ष का फूल
पूछता सत्य की भाषा,
मांगे जीवन की आशा;
जाने क्या अभिलाषा.
खुद से कितना दूर!
आह.. ये कैसी भूल.
ये कैसा उन्माद!
किस का ये उत्पात!
न हवा का कोई झोंका,
न तड़ित का वार.
ओस की इक बूँद से,
खो गया,
इक कली का हास,
चाँदनी का मुक्त विलास.
गया सब कुछ हार.
रह गया मधुमास
शेष.
मेरे जीवन की पतवार,
खो गयी,
जाने कहाँ;
मेरे सपनों की मधुरिमा,
मेरे जीवन की उषा,
खो गयी,
जाने कहाँ..
मुझको जगाकर सो गयी.
और मैं....
रह गया इक पात.
अब कैसा पारिजात?
खो गए जब प्राण;
मिला नया सा ज्ञान.
कैसा फूल?
वो तो थी इक भूल !
यह नया लोक!
न सुख न शोक!
फूल था नादान,
अब हुआ इंसान.
तोड़कर जो फूल को
घर को सजाता है.
बेंधकर उनके हृदय,
मुस्कुराते देखकर;
खुशियाँ मनाता है.
हँसी आती है अब
उनपर, क्योंकि
अब नहीं मैं फूल,
है मुझे यह ज्ञात!
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